लेखक: डॉ पुनीत अग्रवाल
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भाग एक से निरंतर ...
भारत देश मे वैवाहिक बलात्कार कानून क्या-क्या नया ड्रामा लाएगा ये भी अब
जान लिया जाये। पिछले लेख मे सतयुग की वापसी पर ज़ोर दिया गया था और मामला उलझ सा गया
था। पर ऐसा नहीं है, ये कोई घने ज़ुल्फों की छाँव नहीं है जिसमे सब उलझ कर रह
जाए। यह एक राष्ट्रीय अस्मिता का मुद्दा है। बहुत विचार
के बाद यह ही निकाल के आया कि किसी और की ज़िद, सुविधा, और गलती की सज़ा
एक भरे पूरे नर को क्यो दी जाए। यदि मादा स्त्री भर बन के रहना चाहती तो ये
उसकी चॉइस है पर ये भी वो अकेले नहीं चुन सकती, पर अगर वो ये
चाहे कि नर पुरुष भर बनके रहे ये मांग करना अनुचित है। इस से समझ मे
कन्फ़्यूजन और रोष उत्पन्न कहीं न कहीं कभी कभी तो होगा ही। सो हो गया। ये ही सोचता दिख रहा भारतीय पुरुष...
देवी है तू मंदिर मे रहकर तो पूजी ही जाएगी,
पैरों की ठोकर मे आयी तो भी अहिल्या ही कहलाएगी ।
देवता बन भी गया मै, तो भी मुझे अप्सरा कि ज़रूरत पड़ने वाली है,
देवी कभी धरती पर उतर कर घर नहीं आने नहीं वाली है।
पैरों की ठोकर मे आयी तो भी अहिल्या ही कहलाएगी ।
देवता बन भी गया मै, तो भी मुझे अप्सरा कि ज़रूरत पड़ने वाली है,
देवी कभी धरती पर उतर कर घर नहीं आने नहीं वाली है।
कभी तुझे मन करा भी आने को, तो भी तुझे रोक लेंगे तेरी अस्मिता के
पहरेदार,
कि तुझे छू न लूँ मै, कहीं बनकर तेरा दावेदार।
इसी असमंजस मे पुरुष दुबला हुआ जा रहा। जो कुछ
कहीं से पोषण प्राप्त कर रहे वे ही बलात्कार जैसी कृत्य कर रहे जिसकी सज़ा दूसरे
पुरुषों को नर का रूप नहीं बदल पाने के रूप मे मिल रही। वैसे आपको ये शब्द
बलात्कार पता है क्या होता है। सबका होता है,
फिल्मों मे सिर्फ लड़कियो का होता पर घर मे बच्चों और पुरुषों तक का होता। घ्रणित
है इसलिए इसके मूल को ही मिटा दिया जाना चाहिए। ना रहेगी फूँक न बजेगी बांसुरी। अब
“भूख” मत पढ़ लीजिएगा इसको। अलंकार की अपनी मर्यादा होती है,
जैसी की प्राचीन काल मे हुआ करती थी, अमूमन हर
क्रियाय कलाप की भारत मे। बलात्कार की भी थी। “बलात्कार का इतिहास इण्डिया से
भारत तक” ये लेख पढ़ा है की नहीं आपने?
प्राचीन काल में राजा, महाराजाओं, सामंतों
और धनपतियों के यहां घरेलू कामकाज करने वाले चाहे वे पुरुष हो या स्त्री उन्हें
मजबूरन बलात्कार का शिकार होना पड़ता था। अब आपको ये तो पता ही है घर मे धन किसके
पास सबसे ज्यादा होता है? वैसे रेप की
घटनाएं भारत में कम इंडिया में ज्यादा होती हैं, क्योंकि
वहां विदेशी सभ्यता का असर ज्यादा दिखाई देता है। बलात्कार पश्चिमी सभ्यता की देन
है। अगर लोग भारतीय संस्कृति को अपना लें तो इस तरह की घटनाएं बंद हो जायेंगी। बस आ
गया सतयुग। वैसे ये बात
अलग है की बाइबल से लेकर कुरान तक और विष्णु पुराण से वृहदारण्यक उपनिषद तक सब मे
स्त्री हिंसा के वर्णन मिलते हैं। इसिलिय इन सब किताबों से पहले का सतयुग ही
सर्वोत्तम है।
वैसे पति के द्वारा पत्नी के साथ किए बलात्कार पर
सभी धर्म ग्रंथ मुह फुला कर साइलेंट हो गए हैं। वर्णन के नाम पर भाषाकारों की अतिवादी टीका
टिप्पणी के सहारे हैं। लेकिन हाँ, बलात्कार केवल
आज के युग का जघन्य अपराध नहीं है, बल्कि वैदिक
काल से इसे सबसे घृणित कार्य माना गया है। पुराणों में इसकी कठोर सजा का उल्लेख
मिलता है जिसे सुनकर ही रूह कांप जाए। गरुड़ पुराण के अनुसार बलात्कार के लिए क्या-क्या
सजाएं मुकर्रर की गयी है-- बलात्कारी या व्यभिचारी को वैतर्णी नदी में से होकर
यमपुरी मार्ग की और ले जाया जाता है, नर्क में ले
जाकर यमराज इनको तामिस्त्र नामक नर्क में भेजा जाता है जहां कई वर्षों तक लोहे के
एक ऐसे तवे पर रखा जाता है जो सौ योजन (चार सौ किमी) लंबा एवं इतना ही चौडा होता
है। इस तवे के नीचे प्रचंड अग्रि प्रज्वलित होती है और ऊपर से सौ सूर्यों के समान
तेज धूप आती है। इस तवे पर बलात्कारी को निर्वस्त्र कर छोड दिया जाता है! अब कौन
पति अपनी पत्नी के साथ ऐसा वैवाहिक बलात्कार करके नर्क मे इतने यमदूतो के सामने
निर्वस्त्र होना पसंद करेगा? और इनमे से
किसी यमदूत ने भारत की नयी धारा 377 के संशोधन कानून को जान कर.... यदि उसका मन उस
गोरे चिकने पति पर आ गया तो ....? पति फिर वहाँ
भी एक उपभोग की वस्तु भर बनकर रह जाएगा गरम तवे पर । उसको वहाँ उस ताकतवर पार्टनर से कौन बचागा। ज़मीन से उठा खजूर मे अटका। ऊपर यमराज का कानून और डिवाइन रेप (divine rape) नीचे सरकार का कानून और मैराईटल रेप (marital rape)। ये रेप शब्द पूरी सृष्टि मे किस देवी के
आशीर्वाद से व्याप्त हो गया, पता नही?
इस से तो नीचे ही भला था। अपनी बीवी की बात मान
लेना ही बेहतर। सूख कर दुबला दुखी होना उस तवे पर जलने से बेहतर है । तो चलो सब
कुछ भूल कर इस मांग, इस कानून, इस
नयी परंपरा को मूर्त रूप दिया जाये । कैसे? समझा
जाएगा। कुछ प्रेक्टिकल प्रॉब्लेम्स आएँगी इस कानून से, और
ड्रामा भी हो सकता। पर बहता पानी अपना रास्ता बना ही लेता है। जैसे समझते हैं.....
किसका मूड कब बनता है, कब
दोनों का मूड एक साथ कब और कैसे बनेगा, इत्यादि बातें
अब भूलनी होगी। सिर्फ एक तरफा ट्रेफिक मे गाड़ी चलाये जाने की आदत भारतीय पुरुषों
को डालनी होगी। देखा जाय तो साल भर पढ़ाई कर के एक बार दिये जाने वाले एक्जाम की
तरह ही प्रतीक्षा कर कार्य सम्पन्न करना होगा। और ट्रेफिक रुल्स भी बने जा चुके गए
होंगे, उन पर ही गाड़ी चलना ही परम आवश्यक होगा। अब पत्नियाँ पति पर गाड़ी का
एक एंगल गलत भर मुड़ जाने पर बलात्कार का आरोप जब लगा पाएँगी, तो
पति भी acute एंगल को छोड़ obtuse एंगल की तरफ की
दौड़ लगते दिखेंगे। कोई बड़ी बात नहीं right-angle नापते हुये
सन्यास का मार्ग चुन लें या “straight” लाईन से हट कर
खुद को ही ना बदल ले। जो भी हो इतना तो तय है की पुरुष आसानी से उपभोग की वस्तु बन
जाएगा जो शायद स्त्री समाज की चिरकाल से पुरुष से बदला लेने की चाह का मूर्त रूप
लेने का प्रतीक होगा। नारी कि इच्छाओं का सम्मान भी ज़रूरी।
तो फिर सतयुग
की वापसी कैसे होगी, ये तो जैन साधू या सन्यासी बनते दिख
रहे। क्यो नहीं होगी, बिलकुल होगी। आरे भाई पुरुष क्या कभी
दबा है जो अब दबेगा, कहाँ कहाँ किस किस को और क्या क्या
दबा कर के खुद को युगों से उठाए हुये है, पुरुषार्थ तो
उसका कुछ था ही नहीं कभी सब कुछ उसने ऐसे ही “बलात” पाया है, आगे
भी यही चलेगा और क्या। इसका नतीजा क्या होगा” सीधा सा है रोज की तू-तू मै-मै होगी, अलग
से वैवाहिक बलात्कार शिकायत निवारण थाने बनाए जाएंगे । स्पेशल फास्ट ट्रैक कोर्ट
का गठन होगा (ये कहना मर्यादा विरुद्ध नहीं होगा कि ये कोर्ट “urinary
tract” कोर्ट कहे जाने लगे आगे भविष्य मे!) जहां पर कोर्ट परिसर मे ही pathology, forensic
laboratory जैसा माहौल होगा। अच्छा है इसी बहाने स्वाथ्य के प्रति जागरूकता आएगी
भारतीयों मे। फिर होगा क्या? कुछ नहीं, एक
नयी व्यवस्था का अगास होगा। हर चीज़ कांट्रैक्ट और एग्रीमंट से होगी। सीसीटीवी
केमरों की मांग बढ़ जाएगी, IVF और कृत्रिम
गर्भाधान के क्लीनिक्स की बाढ़ आ जाएगी, स्टम्प पेपरों
की बिकरी से राजस्व बढ़ेगा, थानो मे बैठने
के लिए फ़र्निचर, पानी के पियाऊ, आस पास चाय
नाश्तों के ठेले, बिजली उपकरण,
लिखने पड़ने की सामाग्री, रखने की अलमारी, वह सब
कुछ जो एक मंत्रालय चलाने मे लगता का इंतेजाम किया जाएगा,
पूरा बजट प्रावधान होगा, पूरी एक
अर्थव्यवस्था को संबल मिलेगा। भारी आर्थिक मंडी से बाहर आने का भी एक सुनहरा
आइडिया है।
ये कोई अतिश्योक्ति नहीं है, एक
प्रकृतिक और व्यवहारिक सत्य है। ऐसा इसलिए होना तय है क्यो कि कौन पति कब पत्नी के
साथ संबंध बनाएगा और कोन पत्नी कब पति को आलिंगन हेतु अनुमति देगी इसका ब्योरा, समय, अवधि, तरीका, किस mode से होगा, कितना..... ये सब की जानकारी थाने को विधिवत
दी जाएगी, अनुमति मिली तो
ठीक, न मिलने पर
कोर्ट मे अर्ज़ी लगानी होगी जैसे पुलिस द्वारा FIR दर्ज न करने पर सीआरपीसी कि धारा 156(3) मे
कोर्ट मे जाते हैं। कोर्ट फिर शायद अपनी विधिवत प्रक्रिया अपनाकर एक commission, दल भेज कर
मुआयना करवा सकती, रिकॉर्डिंग डिवाइस की उपयोगिता, वैध्यता, इत्यादि चेक की जाएगी तब NOC मिल सकती। अब लो एक और बात बताना तो भूल ही
गया, इसी बीच
संविधान पीठ को भी बैठना पढ़ सकता, अंतरंग विडियो रिकॉर्डिंग संबंधी नियमो मे बदलाव हेतु।
एक और बड़ी बेंच बैठना होगी निजता के अधिकार के पुराने फैसले को पलटने के लिए। इन
सब के द्वारा अनुमति मिलने मे कितना समय लगेगा ये सब सरकारी महकमे की मेहरबानी, सरकार की
रुचि, भ्रष्टाचार
की स्तिथि और न्यायालयों की व्यस्तत पर
निर्भर करेगा। जितना ज्यादा सेक्स समाज और दंपत्ति के मध्य मे होगा उतना टाइम और
आवेदन अधिक होंगे और उनका निस्तारण मे समय लगेगा। आगे दृश्य ऐसा देख सकते हैं की सेक्स पर्मिशन हेतु मैरिज
रैजिस्ट्रार के दफ्तर मे या डेन्टिस्ट की क्लीनिक कि तरह बाहर बारी का इंतज़ार करने
जैसे बैठना होगा। ज़रूरी जो है वरना झूठा लांछन और फिर केस, बेल, जेल ये सब कोन झेलेगा।
लेकिन अनुमति मिल भर
जाना ही क्रिया सम्पन्न नहीं करवा देगा । कुछ अखंड आपदाओं की गुंजाइश हमेशा
बनी रहती है। जैसे इंवर्टर न होने पर बिजली जाने से रिकॉर्डिंग न हो पाना । आवेग
के क्षणो मे बिस्तर से गिरकर पलंग के नीचे पहुँच जाने से कैमरे की हद से बाहर हो
जाना। रिकॉर्डिंग डिवाइस ही करप्ट हो जाना इत्यादि। परेशानी ये है की ये समय रहते
पता चले तो ठीक अन्यथा पंछी उड़ जाने के उपरांत “Benefit of Doubt”
कोन लेगा इस पर तो कानूनी बवाल मच जाएगा । हर केस अंत तक सूप्रीम
कोर्ट तक जाएगा।
अब इस पूरे क्रम मे पति पत्नी निश्चित ही विधिक
ज्ञान मे सक्षम होंगे । अधिवक्ताओं की अधिक आवश्यकता पड़ेगी, नए
कॉलेज खोले जाएंगे विधि शिक्षा हेतु। शायद 10 के
बाद ही ये एक अनिवार्य विषय के रूप मे पढ़ाया जाने लगे। चिंता सरकार की
निश्चित बढ़ेगी क्योकि वर्तमान मे मुकदमो कि लंबित परिस्थिति को देखते हुये 30 से
40 करोड़ लोगों के आवेदन को निपटना कठिन होगा। और मान भी लिया जाए कि हर आदमी ये
प्रक्रिया एक बार ही करता है तब भी कितना कठिन है। और अगर ये क्रिया का आवेदन बार बार किया गया तो ? मान
लो सरकार ऐसी अनुमति जीवन काल मे सिर्फ 2 या 3 या 10 बार देने का निश्चय जन हित मे
कर भी लेती है तब भी 30 करोड़ गुना 10 बार याने इतनी सारे आवेदनों का निपटान करना
होगा । मुझे इसका सोल्यूशंस यह मिला कि घरेलू हिंसा के “प्रोटेक्शन ऑफिसर” कि तरह
एक नया सरकारी पद बना कर एक “reproduction officer”
नियुक्त कर दिया जाएगा और उसको अर्ध न्यायिक शक्तियाँ दे कर ये भार पुलिस और कोर्ट
के कम कर दिया जाएगा। वरना इतने इंतज़ार मे तो इच्छा और उम्र दोनों खतम हो जाएगी।
ऐसा बिलकुल मत सोचिएगा कि आप इस प्रक्रिया से
बचने के लिए आपस मे एक दूसरे पर विश्वास करके बिना लाइसेंस के ड्राइविंग कर लेंगे, कब
आप गाड़ी के साथ एक्सिडेंट को प्राप्त हो जाए कोई नहीं कह सकता। वो गाना याद है न
ऋषि कपूर टीना मुनीम पर फिल्माया “तू 16 बरस की, मै
17 बरस का, मिल गए नैना...कुछ
हो गया तो फिर न कहना”! मूड (mood) एक
बहुत ही बुरा शब्द है, कई संदर्भ
मे, कई जगह अपना अर्थ बदल लेता है, लग
जाएगा आरोप मैरिटल रेप का। चलो अब ये भी सोच लिया जाए कि आरोप लग गया तब क्या? अब
साबित कैसे होगा? साबित करना क्या है?। कोई सुनने वाला तो होगा नहीं पति की। दहेज हत्या
और अत्महत्या तथा रेप कि मामलो की तरह की सुनवाई
का प्रावधान होना इसमे निश्चित है। “Guilty until proven innocent” ही
होना है पूरे ट्राइल मे। मान लो फोरेंसिक रिपोर्ट मे कुछ आये या नहीं आये,
यहाँ पर रेप केस जैसा फायदा मिलना भी नहीं बनता। बंद कमरे कि गवाही कौन देगा?
पत्नी के शरीर पर मौजूद घाव आपके प्रेम के प्रतीक न होकर हिंसा की गवाही ज़रूर
देंगे। बस बन गए आप मुजरिम प्यार के ।
पर मुझे इस पूरे कानून के आने मे एक बहुत बड़ा
फायदा पतियों के लिए आता दिख रहा है कि भारतीय पुरुषों का विवाह माध्यम से जो
आर्थिक, मानसिक, शारीरिक,
पारिवारिक और सामाजिक-व्यावहारिक शोषण होता है उसको भारत मे पुरुष घरेलू हिंसा की प्रकृति मे नहीं देखा जाता है, इसलिए बाकी
झूठे मुकदमो मे भले ही फंस कर वो लड़ता रहेगा, पर
कम से कम एक सुख तो वह बीवी से शांति से प्राप्त कर ही सकेगा। कोई बड़ी बात नहीं कि
मुकदमे बाज़ी के दौरान भी पति न्यायालय की देख रेख मे ऐसी मांग कर सुख प्राप्त कर सके। यह
मांग का हक पत्नी पर भी उतना ही लागू होगा। अगर कोर्ट पत्नी की ना नुकर पर अनुमति देने
से मना करती है, तब पूरे नए कानून पर ही संवैधानिक संकट उत्पन्न हो जाएगा, जो फॅमिली
कोर्ट कभी नहीं चाहती।
पर एक और बात, कानूनी
आदेश या अनुमति के अभाव का पालन, और इंतज़ार दिमाग
कर सकता है, शरीर मे मौजूद हारमोन कि ज़िम्मेदारी कोई नहीं ले सकता। अनुमति मिलने
मे देरी होने पर; या आपसी सहमति पत्र पर राजीनामा
लिखवाकर और कोई ऊंच नीच को नज़रअंदाज़ किए जाने की बात लिखवाकर; और फिर
क्रिया उपरांत फिर उसकी पुलिस को पत्नी की सलामती की रिपोर्ट देने; और
क्लीन चिट मिलने के उपरांत पुनः प्रक्रिया दोहरने मे होने वाली देर एक चिंता का विषय
है। इसका परिणाम ये होगा कि शहर की हर गली मोहल्ले मे आलिंगन करते स्त्री पुरुष दिखाई देंगे।
नगर निगम को शेड और “बैठने की उत्तम व्यवस्था” करनी होगी। अब लग रहा की देश की
न्यायव्यवस्था को सराहनीय दूरदर्शिता के लिए धन्यवाद दिया जाए, शायद इसलिए
संविधान पीठ ने जारता (adultery) को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है। अब ये अनैतिक
होते हुये सिर्फ तलाक लेने भर का आधार रह गया है। कितना अच्छा है मैराइटल रेप का केस
न झेलना हो तो पैसा फेंको, लालचियों की जेब भरो, ऐलिमनी (alimony) दो और डाइवोर्स का सिविल केस करके मुक्ति
पाओ। बस आपकी पत्नी आपके अलावा किसी और मे इंटेरेस्टेड होनी चाहिए। वरना आप एक
एटीएम मशीन बन जाएंगे। वैसे हारमोन बड़ी ही ताकतवर चीज़ है, अकेले रहने नहीं देते किसी को। नए कानून के
आने के बाद सब खुला होगा इसलिए पति को प्रूफ इकट्ठा करने इत्यादि की भी झंझट नहीं
होगी। आसान लग रहा ये सब तो बहुत, सरल और शांतिप्रिय, सतयुग मे वैसे भी सब कुछ बहुत शांतिपरक और
सुव्यवस्थित ही था। इस मे कोई विवाद नहीं दिखता।
विवाद तो सिर्फ टीवी पर
होते दिखते, कितनी ही
डिबेटों, परिचर्चाओं
मे महिलावदी, पुरुषवादी
विचारधारा के नेता, अभिनेताओं के बीच, पर वहाँ सिवाए हु-हल्ला करने और चैनल के एंकर की दबिश के बीच सुनाई देती कुछ घिसी पिटी लाइनों के, कुछ भी
बुद्धि और न्याय परक सुनने को नहीं मिलता। जैसे कुछ दिनो पहले एक बहस मे एक बड़ा
मज़ेदार मुद्दा उठा कि बिस्तर मे जबर्दस्ती कौन करता है? अधिकतर थोपे हुये उत्तरों मे से मुख्य ये
निकाल के आया:
“ज़बरदस्ती पति ही करता है”, “इस
बात का क्या सबूत है?”, तो कई महिलावादियों का उत्तर था कि “अदालत
तय करेगी”, फिर पूछा गया कि “आप पूरा बेडरूम कोर्ट मे ले जाएंगी”? तो वो
कुटिलता से मुस्कुरा दी। अब मुस्कुराहट बड़ी कि कुटिल और संभावनाओ से भरी चीज़
है, कोई क्या मतलब निकाले? अगर पति का मन नहीं
होता और पत्नी जबर्दस्ती करे, उस मे मज़ेदार किस्से तब शुरू होते जब महिला कि कम्प्लेंट
पर पुलिस वाले कहते हैं कि जब पत्नी चाह रही थी तो कर लेना था, नामर्द
है क्या? समाज को लगता है कि पुरुष एक बैल है जिसका काम है, मेहनत
कर के पैसे कमाना और सेक्स करना। अरे, लेकिन बैल तो कुछ
कर ही नहीं सकता! सांड व बैल दोनो ही नर गोवंश हैं । आपको पता होगा गांवों मे
अधिकतर नरों को उनके अंडकोश खराब कर बधिया कर दिया जाता है। यह कार्य संभवतः उनके
पूर्ण वयस्क हो जाने से कुछ समय पूर्व किया जाता है। इससे उनका आक्रामक स्वभाव
समाप्त हो जाता है। उसके बाद उन्हे बैलगाड़ी व हल खींचने हेतु प्रशिक्षित किया जाता
है, ऐसा करने पर वे नर "बैल" कहलाते हैं। जब कि
"सांड" वे अच्छे व स्वस्थ नर होते हैं जिन्हे प्रजनन कार्य हेतु सामान्य
रूप से वयस्क होने दिया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों मे वे स्वतंत्रता से सारे
क्षेत्र मे विचरण करते हैं, व गायों से
संभोग कर गर्भवती बनाते हैं। इस कार्य मे थोडा धार्मिकता का पुट देने हेतु उनके
शरीर पर त्रिशूल व ऊँ का चिन्ह अंकित कर दिया जाता है ताकि उन्हे कोई नुकसान न
पहुंचावे। सांड के कंधे पर की गूमड काफी बडी होती है जब कि बैल की काफी छोटी। बस
अब इसे ऐसे समझें कि नया कानून पति को यही बैल बनाने की प्रक्रिया होगा, कुछ
अच्छे पुरुषों का उपयोग “तृप्ति” हेतु किया जाएगा। पति का छोटा स्वाभिमान अर्थात
गूमड की तरह छोटा होगा दूसरे कुछ पुरुषों की अपेक्षा। धार्मिक पुट के लिए शादी का
ठप्पा लगाया जाएगा, और पौरुष का नाश कर एटीएम मशीन से
तेल निकाला जाता रहेगा। ये कानूनी-नपुन्सिकीकरण का अत्यंत जीवंत उदाहरण
होगा।
मीडिया, सिनेमा इत्यादि
ने भी पुरुष की यही छवि बनायीं है कि वो हर दम तैयार है, जब
चाहे उससे सेक्स करवा लो। ज़्यादातर सेक्स क्लिनिक भी इसी बात को आधार बना कर लूट
मचाते हैं कि आदमी तो हमेशा तैयार होना ही चाहिए। जिनसे ना हो पाया वो खुद को नपुंसक
मान बैठते हैं। पुरुष के लिए consent जैसी कोई चीज़
नहीं होती। एक और प्रश्न है कि क्या “Cohesive” सेक्स यानी
सेक्स के लिए साथी को मान मनुहार से मनाना भी रेप माना जायेगा? जब
स्त्रियां DV एक्ट और 498A का इतना बेहतरीन
इस्तेमाल कर रही हैं तो मैरिटल रेप तो मालामाल वीकली बन ही जाना है। सतयुग मे नारी
पूजनीय थी और उस के हित मे पूरी सृष्टी रहती थी।
एक और मज़ेदार बात भी समझना पड़ेगी, अगर
मान लो पति पत्नी दोनों अपने संवैधानिक हक के प्रति सजग हैं, और
दोनों के बीच कोई जबर्दस्ती खींच तान नहीं होती, पर
ऐसे मे कभी किस का मूड नहीं, कभी किसी का और
ऐसे महीनो निकल जाएंगे तब? अब अगर ऐसे मे
पत्नी का मूड कहीं और है, और हमेशा ही
नहीं होता इस “बैल-नुमा” पति के साथ तब क्या? पति
का निरंतर आग्रह भी घरेलू हिंसा की श्रेणी मे आ जाएगा। इस तरह पति के पास बच्चा न
होना ही एक मात्र साक्ष्य रह जाएगा। बस ऐसे ही मांगते, गिड़गिड़ाते हुये चलेगी पति की ज़िंदगी। वो जय संतोषी माता पिक्चर मे था एक डाइलाँग,
“भूसे की रोटी दो, नारियल के टुकड़े मे पानी दो...” कुछ
ऐसा ही होगा।
अब ये कहना गलत नहीं की वैवाहिक बलात्कार का
कानून लाने और सख्त criminal offence की तरह सज़ा के प्रावधान
से देश की जनसंख्या मे कमी आएगी, सेक्स कम होगा।
ट्रिपल तलाक कानून की तरह ही इसको भी कड़ाई से लाना चाहिए । वहाँ तो सरकार की
मजबूरी मंशा कुछ और थी, पर यहाँ तो
सतयुग का सवाल है। इस कानून से अन्य काम पूर्ति के माध्यम बढ़ेंगे,
वामपंथी, पश्चिमी और उदार मासिकता आएगी, देश
मे हर तरह से क्रांति आएगी और समृद्धि बढ़ेगी। पुरुष डर के ही सही,
दूसरा मार्ग अपनाएँगे। क्या? हिन्दी फिल्मों
ने सब रास्ते पहले ही दिखा दिये हैं, वो पहचान
फिल्म का प्रचलित गाना है, “आदमी हूँ आदमी
से प्यार करता हूँ .....” भला हो संवेधानिक पीठ का जिसने पुरुषों के आने वाले दर्द
को समझते हुये समलेंगिकों के सम्बन्धों को जायज़ कर दिया। एक साथ 2-2 बड़े फैसले पास-पास आए हुये देखकर लगता है कि संवैधानिक पीठ का आगे वैवाहिक बलात्कार को जायज़ करने की दूर की सोच से ही ये उपजे हैं। भविष्य के गर्भ मे से
जल्दी ही एक और फैसला आ सकता है। न्याय व्यवस्था मे सब बराबर हैं, कुछ समान
लोग अधिक समान हैं बस, बाकी कुछ उपयोग का सामान हैं। जो भी हो
संवैधानिक शुद्धता बनी रहनी चाहिए। तयार रहो नरों, पुरुषों,
पतियों, बैलों......
पतियों के लिए विरोध करने का सोचना भी गलत अन्यथा
और बुरा हो सकता। बैल तो फिर भी एक एक पूजनीय प्राणी है, कुछ
और बना दिया तो? याद है न 1975
के आपातकाल के दौरान जब नागरिक स्वतंत्रता को निलंबित कर दिया गया था, संजय गांधी, पूर्व प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के
बेटे ने शुरू किया
था "भीषण अभियान", जब गरीब
पुरुषों की नसबंदी,
गाँवों में
पुलिस की घेराबंदी और वस्तुतः पुरुषों को शल्य चिकित्सा के लिए घसीटने की खबरें
थीं। कुछ ऐसा नया हो गया तब क्या?
मुझे इस विषय पर लिखना ही था,
क्योकि हर वो चीज़ जो पारिवारिक न्यायालय और परिवार से संबंध रखते हुये समाज,
कोर्ट और पुलिस कि भूमिका से जुड़ी हो मुझे आकर्षित कर ही देती है, और
फिर ऐसा संभावनाओं से भरा विषय जो भारत को पुन:
गौरवान्वित होने का मौका दे सकता तो कहना ही क्या। तो भाई ऐसे होगी सतयुग की वापसी--
वीर्य रक्षण, स्त्री सम्मान, स्त्री सुरक्षा,
सहवास-प्रवास, धैर्य धारण मे बढ़ोतरी, विवाह का
न्यायिकरण, कानूनी समझ की आवश्यकता, नरो का
पुरुषिकरण, अर्थव्यवस्था का विकास, जनसंख्या
नियंत्रण, और शादी जैसी आम हो चुकी चीज़ पर फूँक फूँक कर कदम रखने कि बाध्यता, एवं
कई अन्य बेनेफिट्स जिसमे “friends with benefits”
मुख्य है। पूरे देश मे “मित्रता” की भावना मे इजाफा होगा । ये होगी सही मौलिकता और
सतयुग कि वापसी?
लेखक कि नवीन कृति, ज्ञानवर्धक विधि -वैवाहिक पुस्तक पढ़ें:
Caution Money
For dangerous Laddoos of marriage
यह पुस्तक भारत में प्रत्येक कुंवारे पुरुष के लिए एक पूर्व-वैवाहिक पाठ्यपुस्तक है। वर्तमान न्याय व्यवस्था मे सकुशल रहने हेतु एक नवीन कानूनी संकल्पना एवं मार्ग को बताती पुस्तक। वैवाहिक संकट से घिरे हर पुरुष के लिए इसे एक अग्रदूत के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। देश मे अपने तरह कि पहली पुस्तक। घर से कोर्ट तक हर जगह आपका मार्ग दर्शन करेगी ।
भाषा : अँग्रेजी
मूल्य : 250/-
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Bahut Sahi likha Sir. Samaj k muh par ek tamacha hai.
ReplyDeleteThanks
DeleteDo suggest more relevant topics, will try to write on them.