लेखक: डॉ पुनीत अग्रवाल
आपको पता ही होगा कि पृथु से पृथ्वी और मनु से मानव शब्द बना है तो पुरुष शब्द भी तो कहीं से आया ही होगा? जी ये राजकुमार साहब के बेटे पुरू राजकुमार से नहीं बना, अपितु अनादि काल से इसके होने का उल्लेख पुस्तकों मे विद्यमान है। सृष्टि के शुरुआत में ही पुरुष शब्द का उद्भव हुआ है। पुरुष स्तनपायी, सर्वाहारी, बात करने मे सक्षम होते हुये भी चुप रहने वाला, कुछ सोचने, चलने तथा परिश्रम योग्य जन्तु है जिसकी इन खूबियों का उपयोग शादी जैसे सामाजिक बंधन के उपरांत भरपूर किया जाता रहा है। पुरुष के लिए कमाना, खिलाना, रगड़ना, गिड्गिड़ाना, और उदारवादी होकर अपने से आगे औरतों को बढ़ाना जैसे कार्य सर्व आरक्षित हैं।
आपको जानकार खुशी होगी की आरक्षण स्त्रीयों मात्र के लिए नहीं है, और ये तो नवीन समय की मांग की एक रचना है। नर और मादा तो सभी प्रजातियों में होते हैं, मानव के नरों को पुरुष कहना आरक्षित है। इस बात से पुरुषों को अभिमान होना चाहिए कि उनकी पहचान कम से कम आरक्षित है और कोर्ट मे परिवाद के चलते नपुंसक होने के झूटे आरोप लगने के अलावा ये आरक्षण पुरुष से कोई नहीं छीन सकता है। सरकार न सही प्रकृति का बड़ा एहसान है पुरुषों पर! परंतु, और आगे कुछ सालों मे, बढ़ते महिला प्रधान क़ानूनों के चलते हमारी बुद्धि पर आवरण पड़ जाए और सब विस्मृत सा हो जाए तो ये यहाँ लिख कर संतुष्टि पा लेना चाहिए कि आदि ग्रंथ वेद एवं उपनिषदों मे “ईश्वर” के लिए “पुरुष” शब्द का इस्तेमाल मिलता है। मुझे लगता है उस समय इस वर्णन को महिला देवियों की कोर्ट मे चैलेंज किया गया होगा परंतु साक्ष्य की कमी के आधार पर पुरुष देवता जीत गए होंगे।
खैर, ना तो अब वो युग रहा न ही सिंहासन। अब तो कोई यह जानना ही नहीं चाहता कि पुरुष कोई जीव है या हाड़ मांस की मशीन। आदि काल में प्रकृति पुरुष की परिकल्पना से जिस विराट पुरुष की तुलना भगवान विष्णु से की गई थी अब वही पुरुष अंत की ओर अग्रसर है। लगता है वह दिन दूर नहीं जब बिना बीज वाले अंगूर की तरह ही बच्चों की प्रजातियां मिलेंगी जो पापा शब्द विकीपीडिया में ढूंढेंगे। पर अभी यह आदि अंत की बातों का कोई महत्व नहीं दिखता क्योंकि पुरुष अभी वर्तमान में जिस परिस्थिति में है वह इतनी भयावह है कि उसके बारे में लिखना, बोलना, समझना, बताना अपने आप में हास्यास्पद सा है क्योंकि पुरुष तो हर्कुलस की औलाद मानी जाती है, और दहाड़ना उसका तथाकथित पेशा है। वह कैसे किसी मुसीबत में पड़ सकता है और उसके बारे में बोलना एक परिहास ही समझा जाता है क्योंकि उसके ना तो दांत टूटते, ना हड्डियां कमजोर होती, ना बाल झड़ते, ना ही खून निकलता, वह तो सबको दिखाई देने वाला जीव है अगर कोई ओझल है तो बस उसकी परेशानियां क्योंकि वे तो हैं ही नहीं। वैसे इसमें गलत क्या है, जो जितना चीखेगा चिल्लाएगा वह उतना ही सच्चा लगेगा। चीरहरण सिर्फ स्त्रियों का ही नहीं होता सच्चाई का भी होता है और हो ही रहा है। सत्य के रखवालों के समक्ष ही हो रहा है। पुरुष यह हरण नहीं कर पाता इसलिए मध्य में फंसा ओझल है। वह महान था, आगे भी होगा, पर अभी वह बस ओझल है। पता नहीं क्यों आजकल पुरुषों के भविष्य को लेकर बहुत सपने आने लगे हैं। सपने मे तो डरने मे भी डर लगता है कहीं कोई देख न ले कि लो आदमी होकर पीला पड़ गया! कल ही तो मैंने सपने में एक कोर्ट का फैसला सुना था,
यत्र तिरस्कृत: पुरुष: I रमन्ते तत्र देवता: II
अर्थात जिस समाज में पुरुष तिरस्कृत, ओझल है देवता वहीं बसते हैं। पुरुष का यही मध्य है, आज यहीं पर वह स्थिति है । मध्य से आप समझते हैं क्या होता है? वह शिखंडी था न, वैसा ही कुछ मध्य है आप पुरुषों के लिए। ना रो सकते ना हंस सकते बस सह सकते हैं और फिर सहना भी एक कला है जो पुरुषों ने स्त्रियों से ही सीखी होगी आदि काल में जिसका चार्ज, मूल्य स्त्रियां आज पुरुषों से झूठे चार्जेस और आरोप लगा कर ले रही हैं। झूठे क्यों... अरे भाई सीधी सी बात है सच्चा होता तो लगाती ही क्यों ? सच्चाई थोड़े ही कोर्ट कचहरी की मोहताज है, वह तो एक गाली या एक एस.एम.एस से ही बाहर आ जाती है। कोर्ट तो भारतीय संविधान द्वारा बनाई गई एक पोषित करने वाली व्यवस्था है, जहां मजबूर वकीलों और महिला प्रधान कानूनों की काली परछाई में पुरुष बड़े आराम से ओझल हो जाया करता है और बस जो एक बार गायब हुआ तो वह कहीं इतनी आसानी से नहीं मिलता। कुछेक हैं जो वापस मिल जाया करते हैं, ढलती उम्र में उड़े बालों के साथ, कुछ है वह पूरी तरह गायब नहीं हो पाते और बड़ी आसानी से सरकारी मेहमान बन कर सलाखों के पीछे खुद को लेखक और फिलॉस्फर बना लेते हैं। कुछ और मुक्तिपरक होते हैं... अब सुसाइड वाली बात मैं आज नहीं फिर कभी कहूंगा क्योंकि यह लोग कुछ ज्यादा बड़े परोपकारी हैं जो मोक्ष प्राप्ति के लिए परमानेंटली ओझल हो जाते हैं।
धन्य हैं भारतीय न्याय व्यवस्था जो लचर कानूनों और एक तरफा प्रावधानों के चलते लगभग 50 प्रतिशत जनता को गायब कर पाने की जादूगरी कर सकती हैं। मुझे लगता है एशिया में पाई जाने वाली जादूगरी से ही अंग्रेज और पश्चिम के लोग आकर्षित होकर आए होंगे । कभी कभी मुझे धुंधली यादें सपनों में आती हैं और लगता है पूर्व जन्म सामने आता है तब मैं खुद को त्रेता युग के राज महल की दर्शक दीर्घा मैं पाता हूं.... जहां महाराज दशरथ का दरबार लगा हुआ है और उनकी तीन रानियां बिना रुके कुछ बोल रही हैं। वहां एक आदमी फरियाद लेकर आया हुआ होता है कि उसकी पत्नी उसको गरीब होने के कारण मारती है और खाना नहीं देती। महाराज दशरथ उसको साक्ष्य देने को कहते हैं, जो वह दे नहीं पाता क्योंकि बंद कमरे में हुई घटना का कौन गवाह हो सकता है। भगवान भी बिना प्रसाद भक्त के घर शायद आते नहीं, पर आदमी के सिर और शरीर पर लगे घाव और उसका कमजोर तन जरूर एक कहानी बयां कर रहे थे। दशरथ जी अभियुक्त की पत्नी से कुछ पूछते हैं पर तभी तीनों रानियां उठ खड़ी होती हैं और बोलती हैं “महाराजा यह औरत क्यों पति को मारेगी, और कैसे मार सकती है? इसका बेलन बहुत छोटा है, हम इसकी गवाह हैं।“ दशरथ जी बेबस से, सभा में होते हुए भी, बिना न्याय करे ओझल हो जाते हैं। आखिर पुरुष जो थे।
आपको पता ही होगा कि पृथु से पृथ्वी और मनु से मानव शब्द बना है तो पुरुष शब्द भी तो कहीं से आया ही होगा? जी ये राजकुमार साहब के बेटे पुरू राजकुमार से नहीं बना, अपितु अनादि काल से इसके होने का उल्लेख पुस्तकों मे विद्यमान है। सृष्टि के शुरुआत में ही पुरुष शब्द का उद्भव हुआ है। पुरुष स्तनपायी, सर्वाहारी, बात करने मे सक्षम होते हुये भी चुप रहने वाला, कुछ सोचने, चलने तथा परिश्रम योग्य जन्तु है जिसकी इन खूबियों का उपयोग शादी जैसे सामाजिक बंधन के उपरांत भरपूर किया जाता रहा है। पुरुष के लिए कमाना, खिलाना, रगड़ना, गिड्गिड़ाना, और उदारवादी होकर अपने से आगे औरतों को बढ़ाना जैसे कार्य सर्व आरक्षित हैं।
आपको जानकार खुशी होगी की आरक्षण स्त्रीयों मात्र के लिए नहीं है, और ये तो नवीन समय की मांग की एक रचना है। नर और मादा तो सभी प्रजातियों में होते हैं, मानव के नरों को पुरुष कहना आरक्षित है। इस बात से पुरुषों को अभिमान होना चाहिए कि उनकी पहचान कम से कम आरक्षित है और कोर्ट मे परिवाद के चलते नपुंसक होने के झूटे आरोप लगने के अलावा ये आरक्षण पुरुष से कोई नहीं छीन सकता है। सरकार न सही प्रकृति का बड़ा एहसान है पुरुषों पर! परंतु, और आगे कुछ सालों मे, बढ़ते महिला प्रधान क़ानूनों के चलते हमारी बुद्धि पर आवरण पड़ जाए और सब विस्मृत सा हो जाए तो ये यहाँ लिख कर संतुष्टि पा लेना चाहिए कि आदि ग्रंथ वेद एवं उपनिषदों मे “ईश्वर” के लिए “पुरुष” शब्द का इस्तेमाल मिलता है। मुझे लगता है उस समय इस वर्णन को महिला देवियों की कोर्ट मे चैलेंज किया गया होगा परंतु साक्ष्य की कमी के आधार पर पुरुष देवता जीत गए होंगे।
खैर, ना तो अब वो युग रहा न ही सिंहासन। अब तो कोई यह जानना ही नहीं चाहता कि पुरुष कोई जीव है या हाड़ मांस की मशीन। आदि काल में प्रकृति पुरुष की परिकल्पना से जिस विराट पुरुष की तुलना भगवान विष्णु से की गई थी अब वही पुरुष अंत की ओर अग्रसर है। लगता है वह दिन दूर नहीं जब बिना बीज वाले अंगूर की तरह ही बच्चों की प्रजातियां मिलेंगी जो पापा शब्द विकीपीडिया में ढूंढेंगे। पर अभी यह आदि अंत की बातों का कोई महत्व नहीं दिखता क्योंकि पुरुष अभी वर्तमान में जिस परिस्थिति में है वह इतनी भयावह है कि उसके बारे में लिखना, बोलना, समझना, बताना अपने आप में हास्यास्पद सा है क्योंकि पुरुष तो हर्कुलस की औलाद मानी जाती है, और दहाड़ना उसका तथाकथित पेशा है। वह कैसे किसी मुसीबत में पड़ सकता है और उसके बारे में बोलना एक परिहास ही समझा जाता है क्योंकि उसके ना तो दांत टूटते, ना हड्डियां कमजोर होती, ना बाल झड़ते, ना ही खून निकलता, वह तो सबको दिखाई देने वाला जीव है अगर कोई ओझल है तो बस उसकी परेशानियां क्योंकि वे तो हैं ही नहीं। वैसे इसमें गलत क्या है, जो जितना चीखेगा चिल्लाएगा वह उतना ही सच्चा लगेगा। चीरहरण सिर्फ स्त्रियों का ही नहीं होता सच्चाई का भी होता है और हो ही रहा है। सत्य के रखवालों के समक्ष ही हो रहा है। पुरुष यह हरण नहीं कर पाता इसलिए मध्य में फंसा ओझल है। वह महान था, आगे भी होगा, पर अभी वह बस ओझल है। पता नहीं क्यों आजकल पुरुषों के भविष्य को लेकर बहुत सपने आने लगे हैं। सपने मे तो डरने मे भी डर लगता है कहीं कोई देख न ले कि लो आदमी होकर पीला पड़ गया! कल ही तो मैंने सपने में एक कोर्ट का फैसला सुना था,
यत्र तिरस्कृत: पुरुष: I रमन्ते तत्र देवता: II
अर्थात जिस समाज में पुरुष तिरस्कृत, ओझल है देवता वहीं बसते हैं। पुरुष का यही मध्य है, आज यहीं पर वह स्थिति है । मध्य से आप समझते हैं क्या होता है? वह शिखंडी था न, वैसा ही कुछ मध्य है आप पुरुषों के लिए। ना रो सकते ना हंस सकते बस सह सकते हैं और फिर सहना भी एक कला है जो पुरुषों ने स्त्रियों से ही सीखी होगी आदि काल में जिसका चार्ज, मूल्य स्त्रियां आज पुरुषों से झूठे चार्जेस और आरोप लगा कर ले रही हैं। झूठे क्यों... अरे भाई सीधी सी बात है सच्चा होता तो लगाती ही क्यों ? सच्चाई थोड़े ही कोर्ट कचहरी की मोहताज है, वह तो एक गाली या एक एस.एम.एस से ही बाहर आ जाती है। कोर्ट तो भारतीय संविधान द्वारा बनाई गई एक पोषित करने वाली व्यवस्था है, जहां मजबूर वकीलों और महिला प्रधान कानूनों की काली परछाई में पुरुष बड़े आराम से ओझल हो जाया करता है और बस जो एक बार गायब हुआ तो वह कहीं इतनी आसानी से नहीं मिलता। कुछेक हैं जो वापस मिल जाया करते हैं, ढलती उम्र में उड़े बालों के साथ, कुछ है वह पूरी तरह गायब नहीं हो पाते और बड़ी आसानी से सरकारी मेहमान बन कर सलाखों के पीछे खुद को लेखक और फिलॉस्फर बना लेते हैं। कुछ और मुक्तिपरक होते हैं... अब सुसाइड वाली बात मैं आज नहीं फिर कभी कहूंगा क्योंकि यह लोग कुछ ज्यादा बड़े परोपकारी हैं जो मोक्ष प्राप्ति के लिए परमानेंटली ओझल हो जाते हैं।
धन्य हैं भारतीय न्याय व्यवस्था जो लचर कानूनों और एक तरफा प्रावधानों के चलते लगभग 50 प्रतिशत जनता को गायब कर पाने की जादूगरी कर सकती हैं। मुझे लगता है एशिया में पाई जाने वाली जादूगरी से ही अंग्रेज और पश्चिम के लोग आकर्षित होकर आए होंगे । कभी कभी मुझे धुंधली यादें सपनों में आती हैं और लगता है पूर्व जन्म सामने आता है तब मैं खुद को त्रेता युग के राज महल की दर्शक दीर्घा मैं पाता हूं.... जहां महाराज दशरथ का दरबार लगा हुआ है और उनकी तीन रानियां बिना रुके कुछ बोल रही हैं। वहां एक आदमी फरियाद लेकर आया हुआ होता है कि उसकी पत्नी उसको गरीब होने के कारण मारती है और खाना नहीं देती। महाराज दशरथ उसको साक्ष्य देने को कहते हैं, जो वह दे नहीं पाता क्योंकि बंद कमरे में हुई घटना का कौन गवाह हो सकता है। भगवान भी बिना प्रसाद भक्त के घर शायद आते नहीं, पर आदमी के सिर और शरीर पर लगे घाव और उसका कमजोर तन जरूर एक कहानी बयां कर रहे थे। दशरथ जी अभियुक्त की पत्नी से कुछ पूछते हैं पर तभी तीनों रानियां उठ खड़ी होती हैं और बोलती हैं “महाराजा यह औरत क्यों पति को मारेगी, और कैसे मार सकती है? इसका बेलन बहुत छोटा है, हम इसकी गवाह हैं।“ दशरथ जी बेबस से, सभा में होते हुए भी, बिना न्याय करे ओझल हो जाते हैं। आखिर पुरुष जो थे।
मुझे
लगता है दशरथ महाराज की इन तीनों रानियों का पुनर्जन्म आधुनिक भारत में हुआ होगा
और ये रानियां शौकिया महिला उत्थान एन.जी.ओ. और महिला विकास इत्यादि संस्थानों की
ब्यूरो चीफ आदि पदों पर पाई जाती रही होंगी। परंतु दशरथ जी
पुनर्जन्म में इंटरेस्टेड ना होते हुए मोक्ष की प्राप्ति में लग गए होंगे। पुरुष
तो शायद होता ही भगोड़ा प्रवृत्ति का है।
पर मेरा ही पुनर्जन्म एक किसी पुरुष उत्थान विचार से जुड़ने के लिए हुआ होगा और तो और करता भी क्या आंखो देखि मक्खी कैसे निगल ले कोई। भारत मे पुरुष असहाय है। कोई लीगल, समर्पित संस्थाएं नहीं हैं जो पुरुषों के हितों के लिए कोर्ट मे खड़ी रहें। न ही विधिवत साहित्य है और इक्का दुक्का आपस मे लड़ती भिड़ती या धन कमाती संस्थाओं को छोड़ कर कोई यूनिट। अब इसे गलती
कहे या दुरसंयोग, ऐसा बस हो गया। क्योंकि ऐसी संस्थाएं एक तो भारत में हैं ही बहुत कम, दूसरा इनके अस्तित्व से किसी को कोई सरोकार नहीं। अरे भाई! अपने
भाइयों से भाइयों को ही कोई सरोकार नहीं तो बस काहे का रोना धोना। रोते रहिए, बाल पकाते रहिए। जेल में मुफ्त रोटी मिल ही जाती है, बस अंदर रहिये, बाहर वकील तो है ही, सब देख लेगा! चिंता की कोई बात नहीं
है क्योंकि गीता में लिखा है मनुष्य को दृष्टा भाव में रहना चाहिए और गीता भी तो पुरुष
ने ही तो बनाई थी। यह बात अलग है कि महाभारत हुई द्रौपदी के कारण थी। जो भी हो औरत
पर दोष लगाना महापाप है। हीनता है।दु:शासन पुरुष था इसलिए पूरा पुरुष समाज आरोपी है और उसको सुना जाए यह
न्याय व्यवस्था सकारण उचित नहीं समझती। इसलिए हे पुरुष! तू ओझल ही अच्छा है। तू मध्य में रह, नारी को जगह दे उसकी आवाज भारी है:
सुन रहा है ना तू कह रही हूँ मैं,
सत्यवती, मेनका का रूप परम प्रतिभाशाली हूँ,
योग, विनियोग, नियोग सब की अधिकारी हूँ,
भारत देश की आधुनिक, न्यायायिक संभावनाओं से भरी नारी हूँ मैं।
अब जहां बात न्याय व्यवस्था कि आ जाती हो वहाँ
आदर सम्मान करना परम आवश्यक होता है और ज़रूरी भी। विरोध करने के लिए कोई अवतारी
पुरुष शक्तिमान कि ही प्रतीक्षा है, तब तक अंधेरा
कायम रहे।